वृद्धि एवं विकास ये दोनों शब्द प्रायः बिना कोई भेदभाव किये पर्यायवाची रूप में काम में लाये जाते हैं। दोनों यह प्रकट करते हैं कि गर्भाधान के समय से किसी विशेष समय तक किसी प्राणी में कितना कुछ परिवर्तन आया है। इस परिवर्तन की प्रक्रिया में वातावरण की शक्तियों और शिक्षा का बहुत हाथ है। इनकी कृपा से हमारे व्यक्तित्व के सभी पहलुओं- शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, संवेगात्मक, नैतिक आदि का सब ओर से वृद्धि एवं विकास होता है। इस तरह से वृद्धि और विकास दोनों शब्दों का प्रयोग बालक में आयु के बढ़ने के साथ-साथ होने वाले परिवर्तनों के लिये किया जाता है और इसीलिये यह आवश्यक रूप से वंशानुक्रम और वातावरण की उपज कही जाती है।परन्तु अगर कुछ बारीकी से देखा जाए तो वृद्धि और विकास दोनों के बीच बहुत कुछ अन्तर दिखलायी पड़ सकता है। इस अन्तर को हम निम्न प्रकार से व्यक्त कर सकते हैं :
1. वृद्धि शब्द तादात या परिमाण सम्बन्धी परिवर्तनों (Quantitative Changes) के लिये प्रयुक्त होता है। जैसे बच्चे के बड़े होने के साथ आकार, लम्बाई, ऊंचाई और भार आदि में होने वाले परिवर्तनको वृद्धि कह कर पुकारते हैं।
2. वृद्धि एक तरह से सम्पूर्ण विकास प्रक्रिया का एक चरण है। विकास के परिमाण और तादात सम्बन्धी पक्ष के परिवर्तनों को वृद्धि कहा जाता है।
3. वृद्धि शब्द व्यक्ति के शरीर के किसी भी अवयव तथा व्यवहार के किसी भी पहलू में होने वाले परिवर्तनों को प्रकट करता है।
4. वृद्धि की क्रिया आजीवन नहीं चलती। बालक द्वारा परिपक्वता (Maturity) ग्रहण करने के साथ-साथ यह समाप्त हो जाती है।
5. वृद्धि के फलस्वरूप होने वाले परिवर्तन बिना विशेष प्रयास किये दृष्टिगोचर हो सकते हैं। साथ ही इन्हें भली-भांति मापा भी जा सकता है।
6.वृद्धि के साथ-साथ सदैव विकास होना भी आवश्यक नहीं है। मोटापे के कारण एक बालक के भार में वृद्धि हो सकती है परन्तु इस वृद्धि से उसकी कार्यक्षमता एवं कार्यकुशलता में कोई वृद्धि नहीं होती और इस तरह से उसकी वृद्धि विकास को साथ लेकर नहीं चलती है।
1. विकास शब्द वृद्धि की तरह केवल परिमाण सम्बन्धी परिवर्तनों को व्यक्त न कर ऐसे सभी परिवर्तनों के लिये प्रयुक्त होता है जिससे बालक की कार्यक्षमता, कार्यकुशलता और व्यवहार में प्रगति होती है।
2. विकास शब्द अपने आप में एक विस्तृत अर्थ रखता है। वृद्धि इसका ही एक भाग है। यह व्यक्ति में होने वाले सभी परिवर्तनों को प्रकट करता है।
3. विकास किसी एक अंग प्रत्यंग में अथवा व्यवहार के किसी एक पहलू में होने वाले परिवर्तनों को नहीं बल्कि व्यक्ति में आने वाले सम्पूर्ण परिवर्तनों को इकट्ठे रूप में व्यक्त करता है।
4. विकास एक सतत् प्रक्रिया (Continuous Process) है। वृद्धि की तरह बालक के परिपक्व होने पर समाप्त न होकर यह आजीवन चलती है।
5. विकास शब्द कार्यक्षमता, कार्यकुशलता और व्यवहार में आने वाले गुणात्मक परिवर्तनों (Qualitative Changes) को भी प्रकट करता है। इन परिवर्तनों को प्रत्यक्ष रूप में मापना कठिन ही है। इन्हें केवल अप्रत्यक्ष तरीकों जैसे व्यवहार करते हुये बालक का निरीक्षण करना आदि से ही मापा जा सकता है।
6. दूसरी ओर विकास भी वृद्धि के बिना सम्भव हो सकता है। कई बार यह देखा जाता है कि कुछ बच्चों की ऊंचाई, आकार एवं भार में समय गुजरने के साथ-साथ कोई विशेष परिवर्तन नहीं दिखाई देता परन्तु उनकी कार्यक्षमता तथा शारीरिक, मानसिक, संवेगात्मक और सामाजिक योग्यता में बराबर प्रगति होती रहती है।
मानव जीवन के सामाजिक, शारीरिक संवेगात्मक, बौद्धिक आदि पहलुओं से सम्बन्धित ये सभी परिवर्तन जैसा कि श्रीमती हालॉक (1956) का विचार है, निम्न चार प्रमुख वर्गों में रखे जा सकते हैं
1. आकार में परिवर्तन (Changes in Size)
2. अनुपात में परिवर्तन (Changes in Proportion)
3. पुराने लक्षण लुप्त होना (Disappearance of Old Features).
4. नये लक्षण प्रकट होना (Acquisition of New Features)
1. गर्भकाल या गर्भावस्था(Pre-Natal Stage)
2. शिशुकाल और शैशवावस्था(Stage of Infancy)
3. बाल्यकाल या बाल्यावस्था (Childhood Stage)
4. (a) पूर्वबाल्यावस्था(Pre-childhood stage) (b) उत्तर बाल्यावस्था (Post-childhood Stage)
5. किशोरावस्था(Adolescence)
6. प्रौढावस्था (Adulthood)
अगर वृद्धि और विकास को हम समान अर्थों में प्रयुक्त करें तो बच्चे के व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास हमें निम्न रूपों अथवा पहलुओं में गति करता हुआ दिखलाई पड़ता है
(a) शारीरिक विकास (Physical Development)
(b) ज्ञानात्मक विकास (Cognitive Development)
(c) संवेगात्मक विकास (Emotional Development)
(d) नैतिक अथवा चारित्रिक विकास (Moral or Character Development)
(e) सामाजिक विकास (Social Development)
(F)भाषात्मक विकास (Language Development)
विकास के इन विभिन्न आयामों का संक्षिप्त परिचय हम नीचे दे रहे हैं
(a) शारीरिक विकास (Physical Development )- व्यक्ति के शारीरिक विकास में उसके शरीर के बाह्य एवं आंतरिक अवयवों का विकास शामिल होता है।
(b) बौद्धिक या मानसिक विकास (Intellectual or Mental Development ) - इसमें सभी प्रकार की मानसिक शक्तियों जैसे सोचने-विचारने की शक्ति, कल्पना शक्ति, निरीक्षण शक्ति, स्मरण शक्ति तथा एकाग्रता (Concentration), सृजनात्मकता (Creativity), संवेदना (Sensation), प्रत्यक्षीकरण (Perception) और सामान्यीकरण (Generalization) आदि से सम्बन्धित शक्तियों का विकास सम्मिलित होता है।
(c) संवेगात्मक विकास (Emotional Development ) — इसमें विभिन्न संवेगों (Emotions) 52, गुस्स की उत्पत्ति, उनका विकास तथा इन संवेगों के आधार पर संवेगात्मक व्यवहार का विकास सम्मिलित होता है।
(d) नैतिक अथवा चारित्रिक विकास (Moral or Character Development) – इसके अन्तर्गत नैतिक भावनाओं, मूल्यों तथा चरित्र सम्बन्धी विशेषताओं का विकास सम्मिलित होता है।
(e) सामाजिक विकास (Social Development ) - बच्चा प्रारम्भ में एक असामाजिक प्राणी होता है। उसमें उचित सामाजिक गुणों का विकास कर समाज के मूल्यों एवं मान्यताओं के अनुसार व्यवहार करना सिखाना सामाजिक विकास के अन्तर्गत आता है।
(f) भाषात्मक विकास (Language Development )- भाषात्मक विकास में बालक के अपने विचारों की अभिव्यक्ति के लिये भाषा का जानना और उसके प्रयोग से सम्बन्धित योग्यताओं का विकास शामिल होता है।
व्यक्ति विशेष में वृद्धि और विकास की प्रक्रिया के फलस्वरूप होने वाले परिवर्तन कुछ विशेष सिद्धान्तों पर ढले हुए प्रतीत होते हैं। इन सिद्धान्तों को वृद्धि एवं विकास के सिद्धान्त कहा जाता है।
1. निरन्तरता का सिद्धान्त (Principle of Continuity)—यह सिद्धान्त बताता है कि विकास एक न रुकने वाली प्रक्रिया है। मां के गर्भ से ही यह प्रारम्भ हो जाती है तथा मृत्यु पर्यन्त निरन्तर चलती ही रहती है। एक छोटे से नगण्य आकार से अपना जीवन प्रारम्भ करके हम सबके व्यक्तित्व के सभी पक्ष- शारीरिक, मानसिक, सामाजिक आदि का सम्पूर्ण निकास इसी निस्तरता के गुण के कारण भली भांति सम्पन्न होता रहता है। ..
2. वृद्धि और विकास की गति की दर एक सी नहीं रहती (Rate of growth and development is not uniform ) - यद्यपि विकास बराबर होता रहता है, परन्तु इसकी गति सब अवस्थाओं में एक जैसी नहीं रहती। शैशवावस्था के शुरू के वर्षों में यह गति कुछ तीव्र होती है, परन्तु बाद के वर्षों में यह मन्द पड़ जाती है। पुनः किशोरावस्था के प्रारम्भ में इस गति में तेजी से वृद्धि होती है परन्तु यह अधिक समय तक नहीं बनी रहती। इस प्रकार वृद्धि और विकास की गति में उतार-चढ़ाव आते ही रहते हैं। किसी भी अवस्था में यह एक जैसी नहीं रह पाती।
3. वैयक्तिक अन्तर का सिद्धान्त (Principle of Individual differences) – इस सिद्धान्त के अनुसार बालकों का विकास और वृद्धि उनकी अपनी वैयक्तिकता (Individuality) के अनुरूप होती है। वे अपनी स्वाभाविक गति से ही वृद्धि और विकास के विभिन्न क्षेत्रों में आगे बढ़ते रहते हैं और इसी कारण उनमें पर्याप्त विभिन्नताएं देखने को मिलती हैं। कोई भी एक बालक वृद्धि और विकास की दृष्टि से किसी अन्य बालक के समरूप नहीं होता।
4. विकास क्रम की एकरूपता (Uniformity of pattern)- विकास की गति एक जैसी न होने तथा पर्याप्त वैयक्तिक अन्तर पाए जाने पर भी विकास क्रम में कुछ एकरूपता के दर्शन होते हैं। इस क्रम में एक ही जाति विशेष के सभी सदस्यों में कुछ एक जैसी विशेषताएं देखने को मिलती हैं। उदाहरण के लिए मनुष्य जाति के सभी बालकों की वृद्धि सिर की ओर से प्रारम्भ होती है। इसी तरह बालकों के गत्यात्मक और भाषा विकास में भी एक निश्चित प्रतिमान (pattern) और क्रम के दर्शन किए जा सकते हैं।
5. विकास सामान्य से विशेष की ओर चलता है (Development proceeds from general to specific responses ) — विकास और वृद्धि की सभी दिशाओं में विशिष्ट क्रियाओं से पहले उनके सामान्य रूप के दर्शन होते हैं। उदाहरण के लिए अपने हाथों से कुछ चीरा पकड़ने से पहले बालक इधर-उधर यूं ही हाथ मारने या फैलाने की चेष्टा करता है। इसी तरह शुरू में एक नवजात शिशु के रोने और चिल्लाने में उसके सभी अंग-प्रत्यंग भाग लेते हैं परन्तु बाद में वृद्धि और विकास की प्रक्रिया के फलस्वरूप यह क्रियाएं उसकी आंखों और वाक तन्त्र तक सीमित हो जाती हैं। भाषा विकास में भी बालक विशेष शब्दों से पहले सामान्य शब्द ही सीखता है। पहले वह सभी व्यक्तियों को 'पापा' कह कर ही सम्बोधित करता है, इसके पश्चात् ही वह केवल अपने पिता को 'पापा' कह कर सम्बोधित करना सीखता है।
6. एकीकरण का सिद्धान्त (Principle of Integration) विकास की प्रक्रिया एकीकरण के सिद्धान्त का पालन करती है। इसके अनुसार बालक पहले सम्पूर्ण अंग को और फिर अंग के भागों को चलाना सीखता है। इसके बाद वह उन भागों में एकीकरण करना सीखता है। सामान्य से विशेष की ओर बदलते हुए विशेष प्रतिक्रियाओं तथा चेष्टाओं को इकट्ठे रूप में प्रयोग में लाना सीखता है। उदाहरण के लिए एक बालक पहले पूरे हाथ को, फिर उंगलियों को और फिर हाथ एवं उंगलियों को एक साथ चलाना सीखता है।
7. परस्पर सम्बन्ध का सिद्धान्त (Principle of Inter-relation ) ( विकास की सभी दिशाएं शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, संवेगात्मक आदि एक-दूसरे से परस्पर सम्बन्धित हैं। इनमें से किसी भी एक दिशा में होने वाला विकास अन्य सभी दिशाओं में होने वाले विकास को पूरी तरह प्रभावित करने की क्षमता रखता है। उदाहरण के लिए जिन बच्चों में औसत से अधिक बुद्धि होती है, वे शारीरिक और सामाजिक विकास की दृष्टि से भी काफी आगे बढ़े हुए पाए जाते हैं। दूसरी ओर एक क्षेत्र में पाई जाने वाली न्यूनता दूसरे क्षेत्र में हो रही प्रगति में बाधक सिद्ध होती है। यही कारण है कि शारीरिक विकास की दृष्टि से पिछड़े बालक संवेगात्मक, सामाजिक और बौद्धिक विकास में भी उतने ही पीछे रह जाते हैं ।
8. विकास की भविष्यवाणी की जा सकती है (Development is predictable ) —— एक बालक की अपनी वृद्धि और विकास की गति को ध्यान में रख कर उसके आगे बढ़ने की दिशा और स्वरूप के बारे में भविष्यवाणी की जा सकती है। उदाहरण के लिए एक बालक की कलाई की हड्डियों का एक्स किरणों (x-ray) से लिया जाने वाला चित्र यह बता सकता है कि उसका आकार प्रकार आगे जा कर किस प्रकार का होगा। इसी तरह बालक की इस समय की मानसिक योग्यताओं के ज्ञान के सहारे उस के आगे के मानसिक विकास के बारे में पूर्वानुमान लगाया जा सकता है।
9. विकास की दिशा का सिद्धान्त (Principle of developmental direction ) - इस सिद्धान्त के अनुसार विकास की प्रक्रिया पूर्व निश्चित दिशा में आगे बढ़ती है। कुप्पूस्वामी ने इसकी व्याख्या करते हुए लिखा है कि विकास सिफेलो-कॉडल (Cephalo-caudal) और प्रोक्सिमो डिस्टल (Proximo-distal) क्रम में होता है।
Cephalo-caudal क्रम का विकास लम्बवत् रूप में (longitudinal direction) सिर से पैर की ओर होता है। सबसे पहले बालक अपने सिर और भुजाओं की गति पर नियन्त्रण करन सीखता है और उसके बाद फिर टांगों को। इसके बाद ही वह अच्छी तरह बिना सहारे खड़ा होना और चलना सीखता है। Proximo distal क्रम के अनुसार विकास का क्रम केन्द्र से प्रारम्भ होता है, फिर बाहरी विकास होता है और इसके बाद सम्पूर्ण विकास उदाहरण के लिए, पहले रीढ़ की हड्डी का विकास होता है और उसके बाद भुजाओं, हाथ तथा हाथ की उंगलियों का तथा तत्पश्चात् इन सबका पूर्ण रूप में संयुक्त विकास होता है।
10. विकास लम्बवत् सीधा न हो कर वर्तुलाकार होता है (Development is spiral and not linear)—बालक का विकास लम्बवत् सीधा (Linear) न हो कर वर्तुलाकार (Spiral) होता है। वह एक सी गति से सीधा चल कर विकास को प्राप्त नहीं होता, बल्कि बढ़ते हुए पीछे हट कर अपने विकास को परिपक्व और स्थायी बनाते हुए (वर्तुलाकार आकृति की तरह) आगे बढ़ता है। किसी एक अवस्था में वह तेजी से आगे बढ़ते हुए उसी गति से आगे नहीं जाता, बल्कि अपनी विकास की गति को धीमा करते हुए आगे के वर्षों में विश्राम लेता हुआ प्रतीत होता है ताकि प्राप्त वृद्धि और विकास को स्थायी रूप दिया जा सके। यह सब करने के पश्चात् ही वह आगामी वर्षों में फिर कुछ आगे बढ़ने की चेष्टा करता है।
11. वृद्धि और विकास की क्रिया वंशानुक्रम और वातावरण का संयुक्त परिणाम है (Growth and development is a joint product of both heredity and environment) बालक की वृद्धि और विकास को किसी स्तर पर वंशानुक्रम और वातावरण की संयुक्त देन माना जाता है। दूसरे शब्दों में वृद्धि और विकास की प्रक्रिया में वंशानुक्रम जहां बुनियाद का कार्य करता है वहां वातावरण इस बुनियाद पर बनाए जाने वाले व्यक्तित्व सम्बन्धी भवन के लिए आवश्यक सामग्री एवं वातावरण जुटाने में सहयोग देता है। अतः वृद्धि और विकास की प्रक्रियाओं में इन दोनों को समान महत्त्व दिया जाना आवश्यक हो जाता है।
वृद्धि और विकास के सिद्धान्तों का शैक्षिक महत्त्व(Educational Implications of the Principles of Growth and Development) वृद्धि और विकास के उपरोक्त सिद्धान्तों का शैक्षणिक दृष्टि से काफी महत्त्वपूर्ण स्थान है
1. इनसे हमें पता चलता है कि वृद्धि और विकास की गति और मात्रा सभी बालकों में एक जैसी नहीं पाई जाती। अतः व्यक्तिगत अन्तरों (Individual differences) को ध्यान में रख कर हमें सभी बालकों से एक जैसी वृद्धि और विकास की आशा नहीं करनी चाहिए।
2. बालकों के वृद्धि और विकास की भविष्य में होने वाली प्रगति का अनुमान लगा लेने के कारण हमें यह लाभ हो सकता है कि हम उनसे आवश्यकता से अधिक या कम आशाएं न लगा बैठें। जो बालक आगे जा कर जैसा बन सकता है उसी को ध्यान में रख कर हम अपने प्रयत्न कर सकते हैं और इस तरह अनावश्यक परिश्रम और निराशाओं से अपने आपको मुक्त रख सकते हैं।
3. वृद्धि और विकास के दिशा और परिणाम सम्बन्धी सिद्धान्त हमें यह बताते हैं कि एक ही जाति के सदस्यों में वृद्धि और विकास से सम्बन्धित कुछ समानता पाई जाती है। इस दिशा में जिस रूप में विकास या वृद्धि होनी चाहिए, उस तरह बालक की वृद्धि और विकास उस विशेष अवस्था या आयु में हो रहा है या नहीं, इस बात का हम ध्यान रखने की चेष्टा करते हैं। इसी आधार पर हम बालकों में सामान्यता या असामान्यता(Abnormality) की मात्रा का अनुमान लगा कर उनकी उचित वृद्धि और विकास में सहयोग प्रदान कर सकते हैं।
4.वृद्धि और विकास की सभी दिशाएं अर्थात् विभिन्न पहलू (Different aspects) जैसे मानसिक विकास, शारीरिक विकास, संवेगात्मक और सामाजिक विकास आदि परस्पर एक-दूसरे से सम्बन्धित हैं। इस बात का ज्ञान हमें बालक के सर्वांगीण विकास पर ध्यान देने के लिए प्रेरित करता है। किसी एक पहलू पर ध्यान न देने से दूसरे सभी पहलुओं में हो रही प्रगति में बाधा पड़ती है। इस बात का ज्ञान हमें परस्पर सम्बन्ध के सिद्धान्त द्वारा होता है।
5. बाद में आने वाले समय में वृद्धि और विकास को ध्यान में रखते हुए क्या-क्या विशेष परिवर्तन होंगे, इस बात का ज्ञान भी इन सिद्धान्तों के आधार पर हो सकता है। यह जान न केवल माता-पिता तथा अध्यापकों को विशेष रूप से तैयार होने के लिए आधार देता है बल्कि इससे भी आने वाली समस्याओं तथा परिवर्तनों के लिए अपने आप को तैयार करने में समर्थ हो जाते हैं।
6. वंशानुक्रम तथा वातावरण दोनों मिल कर बालक की वृद्धि और विकास के लिए उत्तरदायी हैं, कोई एक नहीं। इनमें से किसी की भी उपेक्षा नहीं की जा सकती। इस बात का ज्ञान हमें वातावरण में आवश्यक सुधार ला कर बालकों को अधिक से अधिक कल्याण करने के लिए प्रेरित करता है।
वृद्धि और विकास को प्रभावित करने वाले कारक (Factors influencing Growth and Development)
*आंतरिक कारक (Internal Factors)
ऐसे सभी कारक जो व्यक्ति में निहित होते हैं, आंतरिक कारक कहलाते हैं। आंतरिक कारकों के इस वर्ग में प्राय: निम्न मुख्य कारकों का समावेश होता है।
1. वंशानुगत कारक (Hereditary Factors)
2. जैविक संरचनात्मक कारक (Biological Constitutional Factors)
3. बुद्धि (Intelligence)
4. संवेगात्मक कारक (Emotional Factors)
5. सामाजिक प्रकृति (Social Nature)
1) वंशानुगत कारक (Hereditary Factors ) – वंशानुगत कारक अपना प्रभाव मां के गर्भ में बच्चे की जीवन लीला शुरू होने अर्थात् गर्भाधान के समय छोड़ते हैं। मां बाप अपने-अपने गुण सूत्र (Chromosomes) तथा पित्र्येक (Genes) के माध्यम से बच्चे को स्थानान्तरण करते हैं। फलस्वरूप बालक को बुद्धि एवं विकास के लिए एक सुनिश्चित आधार प्राप्त हो जाता है। जिसके ऊपर आगे चलकर व्यक्तित्व रूपी भवन का निर्माण होता है। जितनी सुदृढ़ बुनियाद होती है इमारत भी उतनी ही आलीशान बनाई जा सकती है। इस दृष्टि से वंशानुक्रम विशेषताओं के रूप में जो कुछ भी बालक को गर्भाधान के समय अपनी जीवन लीला प्रारम्भ करने के लिए मिलता है उसका अति विशिष्ट महत्त्व होता है। वंशक्रम की यह विरासत में मिलने वाली पूंजी जितनी अधिक और अच्छी होती है, बुद्धि और विकास की एक अपेक्षित सीमा तक प्रगति करने के लिए वातावरण की शक्तियों को उतनी ही कम मेहनत करनी होती है। इसके विपरीत यह पूंजी जितनी कम होती है अर्थात् किसी को शारीरिक बनावट जो उसे विरासत में मिलती है अपूर्ण होती है, उसमें कोई कमी होती है, बुद्धि दोषपूर्ण होती है तथा बौद्धिक योग्यताओं में कमी होती है, इस प्रकार की कमी को वातावरण की शक्तियों द्वारा पूरा करके आगे निश्चित सीमा तक वृद्धि और विकास के स्तर तक पहुंचाना बड़ी टेढ़ी खीर होता है । अतः वंशक्रम की देन द्वारा व्यक्ति की वृद्धि एवं विकास प्रक्रिया में पड़ी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई जाती है। चमड़ी का रंग, आंखों का रंग, बालों की प्रकृति और रंग, स्नायु संस्थान, मस्तिष्क, शारीरिक गठन, ऊंचाई, भार, नलिकाविहीन ग्रंथियों की कार्य प्रणाली आदि बहुत सी बातें ऐसी हैं जिनमें वंशानुगत कारक अपना ऐसा स्थायी प्रभाव छोड़ते हैं जिन पर भविष्य संबंधी सभी प्रकार की वृद्धि एवं विकास की प्रक्रिया कई तरह से निर्भर करती है जिसका अनुमान आपको आगे के पृष्ठों में दिए हुए विवरण से हो जाएगा 2. जैविक एवं संरचनात्मक कारक (Biological and Consitutional Factors) - व्यक्ति की अपनी शारीरिक बनावट, डीलडौल, रंगरूप, स्नायु संस्थान, शारीरिक अवयव, विभिन्न शारीरिक संस्थान, शरीर रसायन, नलिका विहीन ग्रन्थियां, आदि के रूप में जो कुछ भी उसके पास हर समय रहता है ऐसी व्यक्तिगत पूंजी आगे के सभी प्रकार के जीवन व्यवहार को कैसे वित करने की क्षमता रखती है, इसका परिचय नीचे दिया जा रहा है।
i) जो बालक जन्म से ही दुबले पतले, कमजोर, बीमार तथा किसी न किसी शारीरिक बाधा से पीड़ित होते हैं उनसे सामान्य स्वास्थ्य तथा शारीरिक वृद्धि एवं विकास के सामान्य स्तर पर पहुंच जाने की आशाएं काफी कम ही होती हैं। उनकी इस प्रकार की कमियां उनके शारीरिक स्वास्थ्य तथा वृद्धि एवं विकास को ही प्रभावित नहीं करतीं बल्कि, मानसिक, संवेगात्मक तथा सामाजिक विकास में भी बाधक सिद्ध होती है।
(ii) स्नायु संस्थान के रूप में व्यक्ति के पास जो कुछ हर समय रहता है, वह व्यक्ति के ज्ञानात्मक व्यवहार एवं विकास को प्रभावित करने की पूरी क्षमता रखता है। रीढ़ की हड्डी अथवा मस्तिष्क पर पहुँचा छोटा आघात भी बालक को मानसिक दृष्टि से विकलांग बना सकता है। इस तरह स्नायु संस्थान बालक के समस्त अंगों के सही विकास में सकारात्मक भूमिका निभाता है।
(iii) नलिका विहीन ग्रन्थियां (Ductless glands) शुरू से ही मानव वृद्धि एवं विकास की प्रक्रिया में अपनी भूमिका निभाना प्रारम्भ कर देती हैं। इन ग्रन्थियों से उत्पन्न हारमोन्स (Hormones) रक्त में घुले होने के कारण शरीर के कोने-कोने में पहुंचते हैं और इसलिए न केवल शारीरिक विकास बल्कि - हमारे विचारों, भावनाओं आदि की जिस प्रकार की प्रक्रिया होती है, व्यक्ति के शारीरिक, मानसिक, संवेगात्मक, सामाजिक तथा भौतिक विकास की धारा भी उसी तरह मुड़ जाती है। अगर ग्रन्थियों से निकलने वाले हारमोन की मात्रा काफ़ी अधिक कम या अधिक हो जाए तो ग्रन्थियों की अत्यधिक सक्रियता या निष्क्रियता दोनों ही व्यक्ति के संतुलित विकास के लिए घातक सिद्ध हो सकती है।उदाहरण के लिए पीयूष ग्रन्थि (Pituitary gland) अगर निष्क्रिय रहे तो आदमी बौना या नाटा रह जाता है या शरीर के भागों में बिना किसी अनुपात में अस्वाभाविक हो जाती है जिससे व्यक्ति भद्दा और कुरूप लगने लग जाता है।शारीरिक रूप से अधिक कमजोर अधिक दुबली पतली कांया, बेडौल और संतुलित शारीरिक विकास, अधिक मोटापन, कुरूप चेहरा, किसी भी तरह की शारीरिक विकलांगता, अधिक या बहुत कम ऊंचाई आदि जितनी भी शारीरिक दृष्टि से शरीर की विकास संबंधी कमियां एवं त्रुटियां हैं और वे चाहे जन्मजात हों या दुर्घटना तथा रोगवश, व्यक्ति के सभी तरह के विकास में आड़े आती हैं। इन न्यूनताओं की कमियों से ग्रस्त व्यक्ति एक तरफ़ तो अन्य सामान्य व्यक्तियों की तरह कार्य करने एवं व्यवहार करने में पीछे रहता है, दूसरी ओर वह विभिन्न प्रकार की हीन भावनाओं से भी ग्रस्त हो जाता है जिससे वह बुद्धि और विकास के विभिन्न आयामों में आगे बढ़ने में अपना आत्म विश्वास ही खो बैठता है और फलस्वरूप विकास को दौड़ में पीछे ही रह जाता है।
3. बुद्धि (Intelligence)- बुद्धि को सीखने संबंधी योग्यता, समायोजन योग्यता तथा समयानुसार ठीक निर्णय ले सकने की योग्यता के रूप में परिभाषित किया जाता है। स्पष्ट है कि इस प्रकार के व्यवहार में सहायक, बुद्धि, बालक की हर प्रकार की वृद्धि एवं विकास में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायेगी ही। एक बुद्धिमान व्यक्ति से अपने संवेगों को अच्छी तरह नियंत्रण में रख कर पूर्ण संयमित एवं संतुलित व्यवहार को अपेक्षा की जाती है। वह अपने और दूसरों के साथ तालमेल बनाकर चलना और व्यवहार करना अच्छी तरह जानता है और फलस्वरूप उसका सामाजिक विकास एवं नैतिक विकास अल्प बुद्धि युक्त बालकों से सदैव ही अच्छी तरह संपन्न होता है क्या खाना चाहिए, कब खाना चाहिए तथा किस प्रकार का स्वास्थ्य संबंधी नियमों का पालन किया जाना चाहिए, यह जानकारी तथा उस पर अमल करने की बुद्धि से जुड़ा रहता है। मानसिक विकास तो पूरी तरह बुद्धि पर आश्रित होता ही है। जितनी मानसिक क्षमताएं, चाहे वे साधारण स्तर की हों या रचनात्मक, सृजनात्मक और समस्या समाधान योग्यताओं की तरह उच्च स्तर की, सब में बुद्धि के तत्त्वों का ही बोल बाला रहता है। इस तरह व्यक्ति की वृद्धि एवं विकास के समस्त पहलुओं में बुद्धि की प्रधान भूमिका रहती है।
4. संवेगात्मक कारक (Emotional Factors) बालक की वृद्धि एवं विकास को प्रभावित करने में बालक के संवेगात्मक विकास के जुड़े हुए विभिन्न कारक जैसे संवेगात्मक परिपक्वता तथा संवेगात्मक समायोजन क्षमता आदि भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं (बालक में जिस एकार के संवेगों का जिस रूप में विकास होगा वह उसके सामाजिक, मानसिक, नैतिक, शारीरिक तथा भाषा संबंधी विकास को पूरी तरह प्रभावित करने की क्षमता रखता है। जो बालक अत्यधिक क्रोधी होते हैं, भयभीत रहते हैं, जिनमें ईर्ष्या, वैमनस्य आदि नकारात्मक संवेगों की अधिकता रहती है उनकी विकास प्रक्रिया पर भी विपरीत असर पड़ता है। इस प्रकार का व्यवहार उनके शारीरिक और मानसिक दोनों प्रकार के स्वास्थ्य के लिए हानिकारक सिद्ध होता है। संवेगात्मक रूप से असंतुलित बालक पढ़ाई में या किसी अन्य गंभीर कार्यों में ध्यान नहीं दे पाते, फलस्वरूप उनका मानसिक विकास भी प्रभावित होता है। इसके विपरीत जो बालक संवेगात्मक दृष्टि से संतुलित पाए जाते हैं वे वृद्धि एवं विकास के सभी आयामों में संतोषप्रद ढंग से प्रगति करते हैं।
5. सामाजिक प्रकृत्ति - बच्चा जितना अधिक सामाजिक रूप से संतुलित होगा उसका प्रभाव उसके शारीरिक, मानसिक, संवेगामक, भौतिक तथा भाषा संबंधी विकास पर भी उतना ही अनुकूल पड़ेगा। सामाजिक दृष्टि से कुशल बालक अपने वातावरण से दूसरों की अपेक्षा अधिक सीखता है, तथा अधिक अच्छे ढंग से अपना समायोजन कर सकता है। अतः वृद्धि और विकास के सभी आयामों में ठीक ढंग से प्रगति करने की संभावना ऐसे बच्चों में ही दूसरों की अपेक्षा ज्यादा पाई जाती है।
वृद्धि एवं विकास को प्रभावित करने वाले सभी कारक जो व्यक्ति में निहित न हो कर उसके वातावरण में निहित होते हैं बाह्य कारक कहलाते हैं। ये कारक बालक के गर्भाधान के तुरन्त बाद ही उसकी वृद्धि एवं विकास को प्रभावित करना प्रारम्भ कर देते हैं और इस दृष्टि से उन्हें निम्न रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है।
(A) मां के गर्भ में मिलने वाला वातावरण (The Environment available in the womb of the mother)
बालक को गर्भाधान के समय से लेकर उसके जन्म तक (लगभग 9 माह की अवधि) जो कुछ भी मां के गर्भ में उसके पालन-पोषण के लिए प्राप्त होता है वृद्धि एवं विकास की दृष्टि से उसका काफ़ी अधिक महत्त्व है। ये केवल उसकी शारीरिक वृद्धि में ही अपना योगदान नहीं देता बल्कि सभी तरह का आगामी विकास इसी को आधार बनाकर चलता है। उदाहरण के लिए बालक के संवेगात्मक तथा मानसिक व्यवहार के पीछे भी जिस प्रकार का व्यवहार जहां उसकी मां द्वारा उसके पोषण में किया जाता है और जिस तरह का मानसिक एवं शारीरिक स्वास्थ्य मां का होता है, ये सभी बातें मूल रूप से सहायक मानी जाती हैं। चिन्ता, भय एवं संवेगात्मक रूप से असंतुलित माताओं के गर्भ में स्थित बच्चों पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ने की बात कोई काल्पनिक बात नहीं परन्तु वास्तविक सचाई है। मां को गर्भावस्था में अच्छा मानसिक एवं शारीरिक स्वास्थ्य बनाए रखने की सलाह इसीलिए दी जाती है कि उससे न केवल गर्भ के अंदर बालक के विकास पर असर पड़ता है बल्कि आगे के विकास की बुनियाद भी मजबूत होती है। इस वातावरण से जुड़े हुए विभिन्न कारकों को निम्न प्रकार लिपिबद्ध किया जा सकता है:
- गर्भावस्था के दौरान मां का शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य गर्भ में पलने वाले बालकों की संख्या
- मां के गर्भ में बालक को मिलने वाले पोषण की प्रकृति
- किसी एक्स रे तथा रेडियेशन, रेडियो धर्मिता, क्षतिकारक किरणों तथा वायु प्रदूषण आदि का घातक प्रभाव
- सामान्य अथवा असामान्य जन्म प्रक्रिया
- बालक को गर्भाशय में प्राप्त कोई चोट अथवा दुर्घटना संबंधी दुष्परिणाम।
(B) जन्म के बाद मिलने वाला वातावरण
(The Environment available after birth) जन्म के समय से ही बालक को जिन हालतों से गुजरना होता है तथा जो कुछ भी उसे अपने भौतिक, सामाजिक तथा सांस्कृतिक वातावरण से प्राप्त होता है वह उसके सभी प्रकार की वृद्धि एवं विकास को पूरी तरह प्रभावित एवं नियंत्रित करता है। इस प्रकार के वातावरण में शामिल प्रमुख कारकों को निम्न प्रकार से लिपिबद्ध किया जा सकता है :
1. जीवन की घटनाएं एवं दुर्घटनाएं (Accidents and Incidents of life)- जीवन में घटनाओं एवं दुर्घटनाओं के रूप में व्यक्ति के साथ जो कुछ भी घटित होता है वह उसकी वृद्धि एवं विकास के सभी आयामों को पूरी तरह प्रभावित करता है। एक बालक जिसने अपनी मां का साथ किसी दुर्घटनावश जन्म लेते ही या उसके बाद छोड़ दिया हो, इससे सभी तरह के विकास की कहानी ही अब बदल जाएगी। एक छोटी सी प्रेरणादायक घटना जहां बालक के विकास को उन्नति का मार्ग सकती है वहां अनजाने में की गई भूल, अकस्मात घटने वाली घटना या दुर्घटना उसे अवनति के गर्त में भी धकेल सकती है। कोई छोटी सी सिर में हुई चोट उसके स्नायु पर ऐसा आघात पहुंचा सकती है कि उसका मानसिक विकास की अवरुद्ध हो जाए अथवा वह सदा के लिए अपना संवेगात्मक संतुलन ही खो बैठे। इस तरह घटनाओं और दुर्घटनाओं का व्यक्ति की आगामी विकास प्रक्रिया पर गहरा असर पड़ता है।
2. शारीरिक स्वास्थ्य एवं पोषण से जुड़ा हुआ भौतिक वातावरण (The Quality of Physical environment, medical care and nourishment )
व्यक्ति को अपने पोषण एवं शारीरिक स्वास्थ्य के लिए जिस प्रकार का भौतिक वातावरण मिलता है उसका उसके शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य, संवेगात्मक तथा सामाजिक व्यवहार समायोजन तथा कार्य करने के अपने ढंग पर वैसा ही अनुकूल या प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। स्वच्छ एवं स्वस्थ जलवायु, प्रदूषण विहीन वातावरण,स्वच्छ एवं स्वस्थ जल एवं खाद्य पदार्थ, संतुलित भोजन, रहने और कार्य करने संबंधी उपयुक्त भौतिक सुविधाएं एवं वातावरण, उपयुक्त चिकित्सा सुविधाएं आदि का वृद्धि एवं विकास पर सदैव ही अनुकूल प्रभाव पड़ता है जबकि इस प्रकार के भौतिक वातावरण की कमियां उसके विकास के लिए महंगी सिद्ध होती हैं।
3. सामाजिक एवं सांस्कृतिक वातावरण से प्राप्त सुविधाएं एवं अवसर (The Quality of the facilities and opportunities provided by one's social and cultural environment)
व्यक्ति को अपने जन्म के समय से ही जो कुछ प्राप्त होता है वह उसकी वृद्धि एवं विकास के सभी आयामों को पूरी तरह प्रभावित करता है। इस प्रकार के वातावरण से जुड़े हुए विभिन्न तत्त्व कारक तथा परिस्थितियां निम्न हो सकती हैं *बालक की मां बाप तथा परिवार द्वारा की जाने वाली देखभाल। मां बाप तथा परिवार की आर्थिक और सामाजिक स्थिति पास-पड़ोस एवं मुहल्ले का वातावरण
*बालक को विद्यालय या उसके बाद मिलने वाली शिक्षा का स्तर तथा वहां मिलने वाला वातावरण।
*बालक के विकास के लिए उपलब्ध सामाजिक एवं सांस्कृतिक वातावरण का स्तर एवं सुविधाएं ।
*बालक तथा उसके परिवार को उसकी जाति, धर्म, प्रान्तीयता तथा नागरिकता के आधार पर समाज से मिलने वाला व्यवहार।
*बालक को अपने विकास के लिए मिलने वाले विभिन्न शैक्षिक तथा व्यावसायिक अवसर एवं सुविधाएं ।
*मनोरंजन तथा रुचियों के पोषण के लिए मिलने वाली सुविधाएं ।
*बालक, उस समाज तथा राष्ट्र का अपना सम्मान या स्थान जिसमें बालक विकसित हो रहा है तथा उस समाज या राष्ट्र में स्थापित कानून तथा शासन का स्वरूप।
By-Ritu suhag